जौनपुरउत्तर प्रदेश

हरी खाद को लेकर किसानों में नहीं दिख रहा पुराना उत्साह।

जुबैर अहमद की रिपोर्ट 

*जौनपुर।* मिट्टी की उर्वरता कायम रहे और फसलों में स्थायी रुप से उत्पादन में वृद्धि बरकरार रहे इसके लिए जरूरी है कि मिट्टी का स्वास्थ्य संतुलित रहे जिसके लिए जैविक उर्वरकों का प्रयोग बहुत जरूरी है।जमीन की दिन प्रतिदिन बिगड़ती सेहत के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।जमीन की सेहत खराब रहते हुए हमारी सेहत सही रहेगी इससे बड़ा भ्रम और कोई नहीं हो सकता है।
हमारी परम्परागत खेती में जमीन की सेहत सही रखने में जो कार्य किये जाते थे उनमें हरी खाद का महत्वपूर्ण योगदान था।

खेतों में हरी खाद के लिए मुख्य रूप से ढैंचा,सनई, मूंग और उडद की बुआई खेतों में किसान करते हैं।मई महीने के शुरूआत में किसान इनकी बुआई करते हैं।बुआई के लगभग 45 से 50 दिन बाद फसल की गहरी जुताई करके खेत में पानी भर देते हैं जो सड़कर खाद बन जाती है।

लेकिन समय बीतने के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों पर अधिक निर्भरता के चलते जनपद में जागरूक किये जाने और इनके बीजों पर पचास प्रतिशत तक अनुदान दिये जाने के बावजूद हरी खाद के प्रति किसानों में पहले जैसा उत्साह नहीं देखने को मिल रहा है।यह विकास खंड मछलीशहर के गांव बामी का दृश्य है जहां ढैंचा की फसल तैयार हो रही है।ढैंचा की खेती करने वाले किसान अरविंद सिंह कहते हैं कि वह अगले दस से पंद्रह दिनों बाद ढैंचे की फसल की जुताई खेत में करा देंगे। गांव में बमुश्किल से दो चार किसानों ने ढैंचा उगाया है।सनई की खेती के सम्बन्ध में वह कहते हैं कि सनई की खेती हरी खाद के साथ -साथ रस्सी और सुतली के लिए भी की जाती थी लेकिन प्लास्टिक की रस्सियों ने सनई की जरूरत को सीमित कर दिया है जिस कारण सनई की खेती का दायरा उनके क्षेत्र में नाम मात्र का रह गया है। हरी खाद से खेतों में किसान मित्र कीटों की संख्या बढ़ती है जो जमीन में कार्बनिक तत्व को बढ़ाते हैं जिससे रासायनिक उर्वरकों के प्रति हमारी निर्भरता कम होती है साथ-साथ खेतों की जल धारण क्षमता भी बढ़ती है बावजूद इसके किसान इसे लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। उनके गांव में उनके बचपन में सैकड़ों की संख्या में किसान ढैंचे और सनई की बीघे दो बीघे की खेती किया करते थे।

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